सारांश
महाकवि कालिदास को राष्ट्र कवि की उपाधि से विभूषित किया गया है। वे भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रतीक थे। विशाल एवं विराट भारतवर्ष की महान संस्कृति कालिदास की रचनाओं में प्रतिबिंबित होती है। हमारी राष्ट्रीय भावना में एवं विश्व-कल्याण की भावना में किसी प्रकार का कोई विरोधाभास नहीं है। भारतीय कवि राष्ट्र का मंगल चाहता है किंतु साथ ही साथ वह संपूर्ण विश्व की भी मंगलकामना करता है, कालिदास के काव्यों में यह सामंजस्य सुष्ठुरूपेण दृष्टिगोचर होता है। कालिदास ने अपने ग्रंथों में राजा और राजधर्म का, उसकी नीति और व्यवहार का अत्यंत ऐकांतिक एवं विशद विवेचन किया है। कालिदास का प्रत्येक श्लोक जीवन के विराट स्वरूप की सूक्ष्म अभिव्यक्ति करता है! 'अविश्रमो हि लोकतन्त्राधिकारः' तथा 'राज्यं स्वहस्त धृतदंडमिवातपत्रं', 'प्रवर्ततां प्रकृति हिताय पार्थिवः' के रूप में राजधर्म का निर्देश है।
उनकी कृतियों में राजनीति की दृष्टि से दृष्टिगोचर होता है कि राजा के गुणों से उसकी प्रजा सुखी एवं प्रसन्न रहती थी। समाज के सभी वर्ग के प्राणियों के प्रति तथा उनके लिए शास्त्र विहित कर्मों के आचरण के प्रति उनमें उचित कर्तव्य भावना थी। कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में राजा दशरथ के राजधर्म का वर्णन इस प्रकार किया है - ''जिस प्रकार कुबेर धर बरसाते हैं, उसी प्रकार वे भी धन बाँटते थे। जिस प्रकार वरुण दुष्टों को दंड देते हैं, उसी प्रकार वे भी दुष्टों को दंड देते थे और जिस प्रकार सूर्य अत्यंत तेजस्वी है, उसी प्रकार उनका भी प्रचंड तेज था।"
समतया वसुवृष्टिविसर्जनैर्नियमनादसतां च नराधिपः।
अनुययौ यमपुण्य जनेश्वरो सवरुणावरुणाग्रसरं रुचा।।1
राजाओं का सर्वप्रमुख कार्य एवं कर्तव्य यही था कि उनकी कुशल राजनीति के परिणामस्वरूप उनकी प्रजा सुखी एवं खुशहाल हो, क्योंकि राज्य यदि आर्थिक दृष्टि से, रक्षा की दृष्टि से राज्य के सातों अंगों (स्वामी, मंत्री, कोश, दुर्ग, राष्ट्र, बल एवं सुहृत्) से सुसंपन्न होगा तो वहाँ किसी भी प्रकार की आपदाएँ नहीं होंगी।
प्रस्तुत शोधपत्र द्वारा प्राचीनकाल में प्रचलित उत्तम राजधर्म का वर्णन करते हुए वर्तमानयुगीन शासन व्यवस्था अथवा राजधर्म को पुनः प्रतिष्ठित करना।
उद्दिष्ट
1. प्राचीन काल की राजव्यवस्था का ज्ञान।
2. कालिदास द्वारा वर्णित अन्यान्य राजाओं के राजधर्म का ज्ञान।
3. राजा प्रजा के कल्याणार्थ होता है न कि स्वान्तः सुखाय।
4. आधुनिक शासनव्यवस्था में प्राचीन राजधर्म से सारग्रहण।
विषय उपस्थापन
राज्+कनिन् के योग से राजन् शब्द की निष्पत्ति होती है। राजधर्म, अर्थात् राजा का कर्तव्य, राजाओं से संबंध रखने वाला नियम अथवा विधि। महाकवि कालिदास ने राजाओं का महत्व एवं उनकी योग्यता का वर्णन करने के व्याज से प्राणिमात्र के लिए अन्यान्य रमणीय उपदेश प्रस्तुत किए हैं। वस्तुतः यह कवि की लेखनी की महिमा ही है कि जिस कार्य को बड़े-बड़े सुधारक चारों ओर घूमकर उपदेश के द्वारा करने में समर्थ होते हैं, उसे कवि संसार के एक कोने में बैठकर, अपनी लेखनी के बल से सदा के लिए कर देता है।
कालिदास वैयक्तिक उन्नति की अपेक्षा सामाजिक उन्नति के पक्षपाती हैं। उनका समाज श्रुति-स्मृति की पद्धति पर निर्मित समाज है। रघुवंश महाकाव्य में कालिदास ने रघुवंशी राजाओं को निमित्त बनाकर उदार चरित पुरुषों का स्वभाव पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। रघुवंशी राजाओं का वर्णन द्रष्टव्य है - वह त्याग के लिए धन इकट्ठा करता है, सत्य के लिए परिमित भाषण करता है, यश के लिए विजय की अभिलाषा करता है, प्राणियों तथा राष्ट्रों को पददलित करने के लिए नहीं, गृहस्थ जीवन में संतानोत्पत्ति हेतु निरत होता है, कामवासना की पूर्ति हेतु नहीं। कालिदास का राजा भारतीय समाज का आदर्श उपस्थापित करता है। शैशवावस्था में विद्या का अभ्यास, युवावस्था में विषयाभिलाषी, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति धारण करके निवृत्ति-मार्ग के अनुयायी बनते हैं तथा अंत में योगद्वारा अपना शरीर छोड़कर परमपद में लीन हो जाते हैं।
त्यागाय संभृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम्।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्।।
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।2
रघुवंशी राजाओं की गुणगणना क्रम में ही राजा दिलीप के गुणों का वर्णन भी हुआ है जो साधारणतः किसी भी राजा के पक्ष में सही हो सकता है। राजा दिलीप का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है -
आकार सदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः।
आगमैः सदृशारम्भः आरंभसदृशोदयः।।3
अर्थात् राजा का जैसा रूप था वैसी ही बुद्धि थी, वैसी ही धारणा शक्ति थी जिससे शास्त्रादि का अध्ययन स्वाभाविक और सहज हुआ, शास्त्रानुसार ही वह सुंदर कार्य और उनका सही आरंभ करता था और आरंभ के अनुकूल ही उसे सफलता मिलती थी।
कालिदास के मत में राजा को शासन में मध्यम मार्ग का अवलंबी होना चाहिए। राजा की नीतियाँ न तो अत्यंत कठोर होनी चाहिए, न अत्यंत मृदु। इस नीति के द्वारा वह राजाओं का नाश किए बिना उन्हें उसी प्रकार झुका सकेगा जिस प्रकार मध्यम गति से बहने वाला पवन वृक्षों को आँधी की तरह उखाड़े बिना उन्हें हिला-झुका दिया करता है -
न खरो न च भूयसा मृदुः पवमानः पृथिवीरूहामिव।
स पुरस्कृतमध्यमक्रमो नमयामास नृपाननुद्धरन्।।4
कालिदास ने राजा के राजधर्म से संबंधित सभी बिंदुओं पर विचार-विमर्ष प्रस्तुत किया है। शासन-व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालन के लिए राजा निरंतर प्रयत्नशील रहता था। आलस्यादि का त्यागकर राजा लोकतंत्र के संपादन में निरत रहता था। 'शाकुन्तलम्' के पाँचवें अंक में राजधर्म एवं लोक नियंत्रण के संदर्भ में कंचुकी एवं वैतालिकों के माध्यम से इस प्रकार प्रकाश डाला है -
भानुः सकृद्युक्ततुरंग एव
रात्रिंदिवं गन्धवहः प्रयाति।
शेषः सदैवाहितभूमिभारः
षष्ठांशवृत्तेरपि धर्म एषः ।।5
शासन का भार उठाने वाला राजा सूर्य, पवन तथा शेषनाग के समान है। सूर्य एक बार रथ में घोड़े जोत लेने पर फिर विश्राम नहीं करता, पवन अनवरत दिन-रात बहता ही रहता है और शेषनाग भी इस पृथ्वी के भार को सदा अपने ऊपर धारण ही किए रहते हैं। ठीक यही दशा प्रजा से आय का छठा भाग कर के रूप में लेने वाले राजा की भी है। राजा को भी राजकार्य से विश्राम नहीं, क्योंकि लोकशासन का कार्य कठिन होता है।
प्रजा के शासन में राजा को विश्राम कहाँ? इस प्रकार की अभिव्यक्ति कालिदास ने कञ्चुकी के माध्यम से राजा दुष्यंत के प्रति कराई है। कण्व ऋषि के शिष्यों के आगमन पर कञ्चुकी यह विचार करता है कि महाराज को यह सूचना किस प्रकार दी जाय क्योंकि वह अभी-अभी न्यायासन से उठकर गए हैं। महाराज दुष्यंत - अपनी संतान जैसी प्रजा का कार्य करके, थक जाने पर यहाँ एकांत में उसी प्रकार विश्राम कर रहे हैं जिस प्रकार दिवस की धूप से तपा हुआ गजराज हाथियों के झुंड को चरने के लिए छोड़कर स्वयं ठंडे स्थान में विश्राम करता हो -
प्रजाः प्रजाः स्वा इव तंत्रयित्वा
निशेवतेऽशान्तमना विविक्तम्।
यूथानि संचार्य रविप्रतप्तः
शीतं दिवा स्थानमिव द्विपेन्द्रः।।6
कालिदास ने दुष्यंत के माध्यम से राजपद की प्राप्ति तथा तदनंतर उत्पन्न होने वाले क्लेशों का यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत किया है। राजपद प्राप्त करने की उत्सुकता में ही सुख है, उसकी प्राप्ति के बाद नहीं। मन की इच्छा पूर्ण हो जाने से अन्य जीव तो सुख की अनुभूति करते हैं परंतु राजपद की प्राप्ति की इच्छापूर्ति होने के पश्चात् कष्ट की ही अनुभूति होती है क्योंकि राजधर्म का परिपालन अत्यंत क्लेषकर होता है। राज्य उस छतरी के समान है जिसकी मूठ अपने हाथ में लेने से थकावट ही अधिक होती है सुख की प्राप्ति कम ही होती है परंतु देखने वालों को प्रतीति यही होती है कि छाते को धारण करने वाला अत्यंत सुखी है। वास्तव में वह सुख नहीं, वरन् सुखाभास मात्र है -
औत्सुक्यमात्रमवसाययति प्रतिष्ठा
क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव।
नातिश्रमापनयनाय न च श्रमाय
राज्यं स्वहस्तधृतदंडमिवातपत्रम्।।7
राजा किस प्रकार अपने व्यक्तिगत सुखों का त्याग करके प्रजा के कल्याण में निरत रहता है, इसका वर्णन वैतालिक के द्वारा इस प्रकार किया गया है - ''महाराज अपने सुख की इच्छा को त्यागकर प्रजा की भलाई में उसी प्रकार से लगे रहते हैं जिस प्रकार से वृक्ष अपने सिर पर कड़ी धूप सहन करता रहता है, परंतु अपने नीचे बैठने वाले जीवों को छाया ही दिया करता है -
स्वसुखनिरभिलाषः खिद्यसे लोकहेतोः
प्रतिदिनमथवा ते वृत्तिरेवंविधैव।
अनुभवति हि मूर्ध्ना पादपस्तीव्रमुष्णंb
शमयति परितापं छायया संश्रितानाम्।।8
उपनिषदों में मुख्यतः धर्म के तीन स्कंध प्रतिपादित किए गए हैं - यज्ञ, अध्ययन एवं दान। इसके अतिरिक्त तप भी भारतीय धार्मिक साहित्य का प्रतिपाद्य विषय रहा है। कालिदास ने अपने अनेक ग्रंथों में स्थान-स्थान पर इनका विवेचन किया है। यज्ञ के माहात्म्य का वर्णन रघुवंश के प्रथम सर्ग में द्रष्टव्य है - पुरोहित यज्ञ के रहस्यों का ज्ञाता होता है। राजा दिलीप यह बात भली-भाँति जानते हैं वशिष्ठजी के यथाविधि संपादित होम के द्वारा जल की ऐसी वृष्टि होती है जो अकाल से सूखे शस्य को हरा-भरा कर देती है -
हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु।
वृष्टिर्भवति शस्यानामवग्रहविशोषिणाम्।।9
नरराज तथा देवराज, दोनों का ही उद्देश्य मानवमात्र का कल्याण है। नरराज पृथ्वी को दुहकर उससे सुंदर वस्तुएँ प्राप्त करके यज्ञ संपादित करता है तथा देवराज इसके बदले में उत्पन्न होने के लिए आकाश का दोहन कर पुष्कल वृष्टि करता है। इस प्रकार ये दोनों ही अपनी संपत्ति का विनिमय करके उभय लोक का कल्याण करते हैं -
दुदोह गां स यज्ञाय शस्याय मघवा दिवम्।
संपद् विनिमयेनोभौ दधतुर्भुवनद्वयम्।।10
कविवर कालिदास ने दान की महत्ता को भी अपने ग्रंथों में पर्याप्त प्रश्रय प्रदान किया है। रघुवंश के पंचम सर्ग में दान का वर्णन अत्यंत श्लाघ्य है। वरतंतु के शिष्य कौत्स गुरुदक्षिणा के लिए जब रघु के पास गए, तब उन्होंने अपनी सारी संचित संपत्ति यज्ञ में दान कर दी। रघु अलकापुरी पर चढ़ाई करके यक्षराज कुबेर से धन प्राप्त करने का यत्न करते हैं। इतने में कोश से स्वर्णवृष्टि होने लगती है। राजा का आग्रह है कि शिष्य संपूर्ण धन ले जाय और उधर शिष्य का आग्रह है कि मैं आवश्यकता से अधिक धन ग्रहण नहीं करूँगा। दाता और ग्रहीता, दोनों का ही आग्रह आश्चर्यजनक है।
रघुवंश के षष्ठ सर्ग में रघु के दान का वर्णन द्रष्टव्य है -
राजा रघु ने पहले तो विश्वजित् यज्ञ में सारे संसार को जीत लिया, तदनंतर सर्वस्व दान दे डाला। अंततः स्थिति इस प्रकार हो गई कि सोने-चाँदी तो दूर, साधारण धातु के पात्र भी घर में नहीं रहे -
पुत्रो रघुस्तस्य पदं प्रशास्ति महाक्रतोर्विश्वजितः प्रयोक्ता।
चतुर्दिगावर्जितसंभृतां यो मृत्पात्रशेषामकरोद्विभूतिम्।।11
कालिदास ने अपने ग्रंथों में राजधर्म के सम्यक् रूपेण संचालन के लिए राजा में त्याग, दानशीलता तथा तप की अपरिहार्यता को सहज स्वीकृति प्रदान की है। दौश्यंति भरत का मारीचि के आश्रम में जन्म, दिलीप के द्वारा अपनी राजधानी का परित्याग करके वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गो-सेवा, तदनंतर वीर पुत्र की प्रप्ति आदि अनेकानेक उदाहरणों के उपस्थापन द्वारा मानो कालिदास ने मानव-मात्र के प्रति यह संदेश प्रेषित किया है कि जब तक यह संसार त्याग एवं तप का आश्रय लेकर तपोवन की ओर नहीं मुड़ेगा, तब तक यहाँ शांति की संकल्पना फलीभूत नहीं हो सकेगी, आपसी वैमनस्य कभी समाप्त न हो सकेगा।
राजा का सर्वप्रमुख कर्तव्य होता है राष्ट्र की सुरक्षा। सैन्य प्रबंधन राजधर्म का सर्वप्रमुख अंग है जिसका उल्लेख कालिदास ने 'रघुवंश' में अनेक स्थलों पर किया है। रघुवंश के चतुर्थ सर्ग में वर्णित रघुदिग्विजय वर्णन संस्कृत साहित्य में अद्वितीय है। राजा रघु जब विजय-यात्रा हेतु प्रस्थान करते हैं तब उसमें घुड़सवार, हाथी, रथ, पैदल, गुप्तचर तथा शत्रु के राज्य के मार्ग को जानने वाले - षड्विध सेनाओं का समावेश रहता है -
''षड्विधं बलमादाय प्रतस्थे दिग्जिगीषया।"12
राजा रघु ने अत्यंत सुनियोजित तरीके से विश्व-विजय रूपी राजनीतिक परिक्रमा को पूर्ण किया। रघु इतने प्रतापी थे कि सेना के पहुँचने के पूर्व ही शत्रु काँप उठता था। आगे-आगे उनका प्रताप चलता था, पीछे उनकी सेना का कोलाहल सुनाई पड़ता था, तब धूल उड़ती दिखाई देती थी और सबसे पीछे रथ आदि की सेना चलती आती हुई ऐसी लगती थी मानो रघु ने अपनी सेना को चार भागों में बाँट रखा हो -
प्रतापोऽग्रेततः शब्दः परागस्तदनंतरम् ।
ययौ पश्चाद्रथादीति चतुःस्कन्धेव सा चमूः।।13
कालिदास ने 'रघुवंश' के ही पाँचवे तथा सातवें सर्गों में कुमार अज के सैन्य संचरण तथा स्वयंवर में हारे हुए अनेक राजाओं के साथ हुए युद्ध का वर्णन कर रघुवंशी राजाओं के कुशल सैन्य-प्रबंधन का विवेचन किया है। सोलहवें सर्ग में कुश के कुशावती से उजड़ी अयोध्या को ससैन्य लौटाने का वर्णन हुआ है। प्रस्तुत श्लोक द्रष्टव्य है -
तस्य प्रयातस्य वरूथिनानां पीड़ामपर्याप्तवतीत सोढुम।
वसुन्धरा विष्णुपदं द्वितीय मध्वारूरोहेव रजश्घलेन।।14
अर्थात् चलते समय कुश की सेना का भार पृथ्वी सँभाल नहीं सकी, इसीलिए उड़ती हुई धूल ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो पृथ्वी विष्णु के दूसरे पद अर्थात् आकाश में जा पहुँची हो। कुश की सेना की भव्यता की कल्पना महाकवि के प्रस्तुत श्लोक से की जा सकती है जहाँ कुशावती से चलती हुई या आगे के पड़ाव पर पहुँची हुई या मार्ग में चलने वाली जितनी भी कुश की सेना की टुकड़ियाँ थीं, वे सब की सब पूरी सेना ही प्रतीत होती थीं -
उद्यच्छमाना गमनाय पश्चात्पुरो निवेशे पथि च व्रजन्ती।
सा यत्र सेना ददृषे नृपस्य तत्रैव सामग्र्यमतिं चकार।।15
महाकवि राजकीय जीवनचर्या से भलीभाँति परिचित थे अतएव उन्होंने राजजीवन के प्रत्येक पक्ष को अपने ग्रंथ में प्रश्रय प्रदान किया है। कालिदास ने आखेट के गुणों का उल्लेख भी अपने काव्य में किया है। 'रघुवंश' के नवें सर्ग में दशरथ के आखेट का वर्णन अत्यंत सजीव प्रतीत होता है। रजा दशरथ ने आखेट के स्थान का चयन बहुत सोच-समझकर किया था। उस स्थान पर अनेक तालाब थे जिनके तट पर गायें एवं मृग विचरण करते रहते थे। जलाशय के कारण नानाविध पक्षी भी वहाँ विहार करते थे। शिकारी कुत्ते और जाल लिए राजा के सेवक पहले ही पहुँच चुके थे तत्पश्चात् स्वामी के वन में प्रवेश करते ही वन-पशु शंकित होकर निकले -
श्वगणिगुरिकैः प्रथमास्थितं व्यपगतानलदस्यु विवेश सः।
स्थिरतुरंगमभूमि निपानवन्मृगवयोगवयोपचितं वनम्।।16
दशरथ के सिंह के आखेट का अत्यंत रोमाञ्चकारी उदाहरण द्रष्टव्य है -
अथ नभस्य इव त्रिदशायुधं कनकपिङ्गतडिढ्गुणसंयुतम्।
धनुरधिज्यमनाधिरूपाददे नरवरो रवरोषितकेसरी।।17
अर्थात् उधर राजा ने धनुष चढ़ाया और इधर सिंह अपनी मादों से निकले। सिंहों के गरजने का उत्तर राजा ने धनुष की टंकार से दिया जिसे सुनकर प्रतीत हुआ मानो वन पर भादों छा गया हो जिसमें इंद्रधनुष निकला हुआ हो और जिसमें सोने के रंग की पीली बिजली की डोर बँधी हो।
महाकवि ने राजा के आखेट का वर्णन कई श्लोकों में किया है जिनमें राजा का आखेट के प्रति सहज प्रेम प्रकट होता है किंतु साथ ही साथ महाकवि ने मृग के आखेट के समय मृगी को बीच में आया देखकर दशरथ के जिस उदात्त मानवीय चरित्र की सर्जना की है, वह नितांत श्लाघ्य है -
लक्ष्यीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभावः
प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम्।
आकर्णकृष्टमपि कामितया स धन्वी
बाणं कृपामृदुमनाः प्रतिसंजहार।।18
अर्थात् इंद्र के समान शक्तिशाली, चतुर धनुषधारी राजा दशरथ ने देखा कि वे जिस कृष्णसार मृग का वध करना चाहते थे, उसकी मृगी बीच में आ खड़ी हुई है। वे स्वयं भी भावुक प्रणयी थे। अपने हरिण के लिए हरिणी का यह प्रेम देखकर उन्हें सहसा अपनी प्रिया की याद आ गई और उन्होंने कान तक खिंचे हुए धनुष की प्रत्यंचा से बाण उतार लिया।
वे दूसरे हरिणों पर भी बाण चलाना चाहते थे किंतु उन्होंने अपने आवेग पर नियंत्रण कर लिया क्योंकि जब उन्होंने मृगियों के त्रास भरे व्याकुल नयनों को देखा तो तत्क्षण उन्हें अपनी प्रियतमा के चंचल नेत्रों का स्मरण हो आया और कानों तक खिंचा धनुष अपने कार्य से विरत हो गया, उनके हाथ शिथिल पड़ गए -
तस्यापरेष्वपि मृगेषु शरान्मुमुक्षोः
कर्णान्तमेत्य बिभिदे निबिडोऽपि मुष्टिः।
त्रासातिमात्रचटुलैः स्मरतः सुनेत्रैः
प्रौढप्रियानयनविभ्रमचेष्टितानि।।19
महाकवि कालिदास ने अपनी कालजयी रचनाओं में राजा एवं राजधर्म का अत्यंत विस्तार से वर्णन किया है। जीवन के सभी क्षेत्रों में उनके श्लोक व्यापक एवं गूढ़ अर्थ समाहित किए रहते हैं। कालिदास का संदेश उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' के अंतिम श्लोक में इस प्रकार प्रकट होता है -
प्रवर्ततां प्रकृतिहिताय पार्थिवः
सरस्वती श्रुतिमहती महीयताम्।
ममापि च क्षपयतु नीललोहितः
पुनर्भवं परिगतशक्तिरात्मभूः।।20
राजा प्रजा के हित साधन में लगे, शास्त्र के अध्ययन से महत्वशाली विद्वानों की वाणी सर्वत्र पूजित हो, शक्ति संपन्न भगवान् शंकर समग्र जीवों का पुनर्जन्म दूर कर दें। इससे सुंदर संदेश मानवमात्र के लिए और क्या हो सकता है? राजा का प्रधान कार्य प्रजा का अनुरञ्जन है। राजा का प्रधान कर्तव्य होना चाहिए समाज की रक्षा। राजाओं का लक्ष्य धर्म एवं न्याय होना चाहिए। राजा ही प्रजा का सच्चा पिता है, पालक है, वह उनके शिक्षा की व्यवस्था करता है, उनकी सर्वविध रक्षा करता है तथा उनके जीविका की भी व्यवस्था करता है जबकि उनके माता-पिता उनके भौतिक जन्म के हेतु हैं। राजा अज के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति यही मानता था कि राजा उनका व्यक्तिगत मित्र है।
राजा छात्रबल का प्रतीक है तथा विद्वज्जन ब्राह्मतेज के प्रतिनिधि हैं। इन दोनों के परस्पर सहयोग एवं सान्निध्य से ही राष्ट्र का कल्याण संभव है। ब्राह्मतेज तथा छात्रबल का सहयोग पवन तथा अग्नि के समागम के समान नितांत उपादेय है -
स बभूव दुरासदः परैर्गुरूणाथर्वविदा कृतक्रियः।
पवनाग्निसमागमो ह्यर्य सहितं ब्रह्म यदस्त्रतेजसा।।21
संदर्भ ग्रंथ सूची
1. रघुवंशम् - 9/6
2. रघुवंशम् - 1/7,8
3. रघुवंशम् - 1/15
4. रघुवंशम् - 8/9
5. अभिज्ञान शाकुन्तलम् - 5/4
6. अभिज्ञान शाकुन्तलम् - 5/5
7. अभिज्ञान शाकुन्तलम् - 5/6
8. अभिज्ञान शाकुन्तलम् - 5/7
9. रघुवंशम् - 1/62
10. रघुवंशम् - 1/26
11. रघुवंशम् - 6/76
12. रघुवंशम् - 4/26
13. रघुवंशम् - 4/30
14. रघुवंशम् - 16/28
15. रघुवंशम् - 16/29
16. रघुवंशम् - 9/53
17. रघुवंशम् - 9/54
18. रघुवंशम् - 9/57
19. रघुवंशम् - 9/58
20. अभिज्ञान शाकुन्तलम् - 7/35
21. रघुवंशम् - 8/4
*यह आलेख डॉ. सुधा त्रिपाठी के साथ मिलकर लिखा गया है